Pradosh Vrat प्रत्येक महीने की कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी के व्रत को प्रदोष व्रत कहा जाता है. सूर्यास्त होने के बाद और रात्रि शुरू से पहले का समय प्रदोष काल कहलाता है. अलग-अलग शहरों में सूर्यास्त का समय भी अलग-अलग होता है, इसीलिए प्रदोष काल दो अलग-अलग शहरों के लिए अलग हो सकते हैं. --------------------------------------------------
एक हाथी मरने के बाद धर्मराज के यहाँ पहुँचा| धर्मराज उसको देखते ही बोले - ‘अरे! तुझे इतना बड़ा शरीर मिला, फिर भी तू अपने से कम बलशाली और छोटे शरीर वाले मनुष्य के वश में हो गया ! मनुष्य तो तेरे एक पैर के बराबर था , फिर भी तू उसके वश में हो गया!’ वह हाथी बोला-‘महाराज! यह मनुष्य ऐसा ही है|
बड़े-बड़े इसके वश में हो जाते हैं ! धर्मराज ने कहा - हमारे यहाँ तो अनगिनत मनुष्य आते हैं ! इस बात पर हाथी ने कहा- आपके यहाँ कोई जीवित मनुष्य नहीं आते हैं, अगर कोई जीवित मनुष्य आ जाये तो आपको भी पता लग जायेगा | इस पर धर्मराज ने अपने दूतो को आज्ञा दी - अरे ! एक जीवित मनुष्य को लेकर आओ | दूतों ने कहा - ठीक है |
धर्मराज के दूत घूमते फिरते एक गाँव में पहुचे और उन्होंने देखा कि छत के ऊपर एक आदमी सो रहा है | दूतों ने उसको उठा लिया और खाट सहित ले जाने लगे | जब उस आदमीं की नींद खुली तो देखा कि
धर्मराज के दूत उसे खाट सहित ले जा रहे है | उसने सोचा कि यदि हम भागने की कोशिश करेंगे तो गिर जायेंगें और हड्डियाँ टूट कर बिखर जायँगी! वह बेचारा खाट पर पड़ा - पड़ा सोंच रहा था कि जो होगा, देखा जायगा| फिर अचानक उसने अपनी जेब से कागज और कलम निकली और कागज पर कुछ लिखकर अपनी जेब में रख लिया |
कुछ देर बाद दूत यमपुरी पहुँच गये | और उसे सीधे धर्मराज की सभा में ले गये | सभा लगी हुई थी और दूतों ने धर्मराज के सामने खाट को नीचे रखा | वह मनुष्य यह सब देख रहा था उसने तुरन्त जेब से कागज निकाल कर दूतों को दिया और कहा कि इस पत्र को धर्मराज को दे दो | दूतों ने यह पत्र धर्मराज को दे दिया उस पत्र पर भगवान् विष्णु का नाम लिखा था| | धर्मराज पत्र को पढ़ने लगे, उसमें लिखा था - ‘धर्मराज जी से नारायण की यथायोग्य | यह हमारा मुनीम है मैंने इसे आपके पास भेजा है| अब सभी कार्य इसके द्वारा ही कराना सुनिश्चित करे | दस्तखत-
नारायण, वैकुण्ठपुरी|
उस पत्र को पढ़कर धर्मराज अपनी गद्दी छोड़कर खड़े हो गये और बोले - ‘आइये श्रीमान! आप मेरी गद्दी पर बैठो | और धर्मराज ने मुनीम को अपने सारे अधिकार सौपते हुए गद्दी पर बैठा दिया कि भगवान् का हुक्म है|
अब दूत दूसरे आदमी को लाये| कायस्थ बोला-‘यह कौन है?’ दूत-महाराज! यह डाका डालने वाला है| बहुतों को लूट लिया, बहुतों को मार दिया| इसको क्या दण्ड दिया जाय?’ कायस्थ-‘इसको वैकुण्ठ में भेजो|’
‘यह कौन है?’
‘महाराज! यह दूध बेचने वाली है| इसने पानी मिलाकर दूध बेचा जिससे बच्चों के पेट बढ़ गये, वे बीमार हो गये| इसका क्या करें?’
‘इसको भी वैकुण्ठ में भेजो|’ ‘यह कौन है?
‘इसने झूठी गवाही देकर बेचारे लोगों को फँसा दिया| इसका क्या किया जाय?’
‘अरे, पूछते क्या हो? वैकुण्ठ में भेजो|’
अब व्यभिचारी आये, पापी आये, हिंसा करनेवाला आये, कोई भी आये, उसके लिए एक ही आज्ञा कि ‘वैकुण्ठ में भेजो|’ अब धर्मराज क्या करें? गद्दी पर बैठा मालिक जो कह रहा है, वही ठीक! वहाँ वैकुण्ठ में जाने वालों की कतार लग गयी| भगवान् ने देखा कि अरे! इतने लोग यहाँ कैसे आ रहे हैं? कहीं मृत्युलोक में कोई महात्मा प्रकट हो गये? बात क्या है, जो सभी को बैकुण्ठ में भेज रहे हैं? कहाँ से आ रहे हैं? देखा कि ये तो धर्मराज के यहाँ से आ रहे हैं|
भगवान् धर्मराज के यहाँ पहुँचे| भगवान् को देखकर सब खड़े हो गये| धर्मराज भी खड़े हो गये| वह कायस्थ भी खड़ा हो गया| भगवान् ने पूछा-‘धर्मराज! आपने सबको वैकुण्ठ भेज दिया, बात क्या है? क्या इतने लोग भक्त हो गये?’
धर्मराज-‘प्रभो! मेरा काम नहीं है| आपने जो मुनीम भेजा है, उसका काम है|’
भगवान् ने कायस्थ से पूछा-‘तुम्हे किसने भेजा?’
कायस्थ-‘आपने महाराज!’
‘हमने कैसे भेजा?’
‘क्या मेरे बाप के हाथ की बात है, जो यहाँ आता? आपने ही तो भेजा है| आपकी मर्जी के बिना कोई काम होता है क्या? क्या यह मेरे बल से हुआ है?’
‘ठीक है, तूने यह क्या किया?’
‘मैंने क्या किया महाराज?’
‘तूने सबको वैकुण्ठ में भेज दिया!’
‘यदि वैकुण्ठ में भेजना खराब काम है तो जितने संत-महात्मा हैं, उनको दण्ड दिया जाय! यदि यह खराब काम नहीं है तो उलाहना किस बात की? इस पर भी आपको यह पसंद न हो तो सब को वापस भेज दो| परन्तु भगवद्गीता में लिखा यह श्लोक आपको निकालना पड़ेगा-‘यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परम मम’ ‘मेरे धाम में जाकर पीछे लौटकर कोई नहीं आता|
‘बात तो ठीक है| कितना ही बड़ा पापी हो, यदि वह वैकुण्ठ में चला जाय तो पीछे लौटकर थोड़े ही आयेगा! उसके पाप तो सब नष्ट हो गये| पर यह काम तूने क्यों किया?’
‘मैंने क्या किया महाराज? मेरे हाथ में जब बात आयेगी तो मै यही करूँगा, सबको वैकुण्ठ भेजूँगा| मैं किसी को दण्ड क्यों दूँ? मै जानता हूँ कि थोड़ी देर देने के लिए गद्दी मिली है, तो फिर अच्छा काम क्यों न करूँ? लोगों का उद्धार करना खराब काम है क्या?’
भगवान् ने धर्मराज से पूछा-‘धर्मराज! तुमने इसको गद्दी कैसे दे दी?
धर्मराज बोले-‘महाराज! देखिये, आपका कागज आया है| नीचे साफ-साफ आपके दस्तखत हैं|’
भगवान् ने कायस्थ से पूछा-‘क्यों रे, ये कागज मैंने कब दिया तेरे को?’
कायस्थ बोला-‘आपने गीता में कहा है-‘सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टः’ ‘ मै सबके हृदय में रहता हूँ’; अतः हृदय से आज्ञा आयी कि कागज लिख दे तो मैंने लिख दिया| हुक्म तो आपका ही हुआ! यदि आप इसको मेरा मानते हैं तो गीता में से उपर्युक्त बात निकाल दीजिये!’
भगवान् ने कहा-‘ठीक|’ धर्मराज से पूछा-‘अरे धर्मराज! बात क्या है? यह कैसे आया?’
धर्मराज बोले-‘महाराज! कैसे क्या आया, आपका पुत्र ले आया!’ दूतों से पूछा-‘यह बात कैसे हुई?’
दूत बोले-‘महाराज! आपने ही तो एक दिन कहा था कि एक जीवित आदमी लाना|’
धर्मराज-‘तो वह यही है क्या? अरे, परिचय तो कराते!’
दूत-‘हम क्या परिचय कराते महाराज! आपने तो कागज लिया और इसको गद्दी पर बैठा दिया| हमने सोचा कि परिचय होगा, फिर हमारी हिम्मत कैसे होती बोलने की?’
हाथी वहाँ खड़ा सब देख रहा था, बोला-‘जै रामजी की! आपने कहा था कि तू कैसे आदमी के वश में हो गया? मैं क्या वश में हो गया, वश में तो धर्मराज हो गये और भगवान् हो गये! यह काले माथेवाला आदमी बड़ा विचित्र है महाराज! यह चाहे तो बड़ी उथल-पुथल कर दे! यह तो खुद ही संसार में फँस गया!’
भगवान् ने कहा-‘अच्छा, जो हुआ सो हुआ, अब तो नीचे चला जा|’
कायस्थ बोला-‘गीता में आपने कहा है- ‘मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते’ ‘मेरे को प्राप्त होकर पुनः जन्म नहीं लेता’ तो बतायें, मैं आपको प्राप्त हुआ कि नहीं?
भगवान्-‘अछ भाई, तू चल मेरे साथ|’
कायस्थ-‘महाराज! केवल मैं ही चलूँ? हाथी पीछे रहेगा बेचारा? इसकी कृपा से ही तो मैं यहाँ आया| इसको भी तो लो साथ में!’
हाथी बोला-‘मेरे बहुत-से भाई यहीं नरकों में बैठे हैं, सबको साथ ले लो|’
भगवान् बोले-‘चलो भाई, सबको ले लो!’ भगवान् के आने से हाथी का भी कल्याण हो गया, कायस्थ का भी कल्याण हो गया और अन्य जीवों का भी कल्याण हो गया!
यह कहानी तो कल्पित है, पर इसका सिद्धांत पक्का है कि अपने हाथ में कोई अधिकार आये तो सबका भला करो| जितना कर सको, उतना भला करो| अपनी तरफ से किसी का बुरा मत करो, किसी को दुःख मत दो| गीता का सिद्धांत है-‘सर्वभूतहिते रताः’ ‘प्राणिमात्र के हित में प्रीति हो’| अधिकार हो, पद हो, थोड़े ही दिन रहने वाला है| सदा रहने वाला नहीं है| इसलिये सबके साथ अच्छे-से-अच्छा बर्ताव करो|
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